‘गरजने वाले बादल बरसते नहीं है।’ हिंदी का यह सुप्रसिद्ध मुहावरा अक्सर बड़बोले व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है। आज यह मुहावरा UN और NATO जैसी विश्वस्तरीय संस्थाओं पर काफी सही बैठता है। अपने बोड़बोले पन के लिए प्रख्यात यह संस्थाए जरूरत के समय यूक्रेन के किसी काम ना आ सकीं। आलम तो यह है कि कल तक NATO के गुणगान गाने वाले यूक्रेन के राष्ट्रपति आज यह कहते दिखाई दे रहें है कि, ‘दुनिया ने हमें रूस से लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया।’ कोरोना काल ने विश्व को WHO की वास्तविकता और विश्वसनीयता से परिचित करवा ही दिया था, अब रूस-यूक्रेन युद्ध ने एक और विश्वस्तरीय संस्थान, UN को भी दुनिया के सामने नंगा कर के रख दिया।
यूक्रेन अपनी इस हालत के लिए खुद ज़िम्मेदार है।
अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना बड़ा ही आसान है, लेकिन अंततः उस गलती का परिणाम आप को ही भुगतना पड़ता है। आज यूक्रेन, NATO और UN को भले ही कोस रहा हो लेकिन उसके इन हालातों के लिए कहीं-न-कहीं वह स्वयं भी ज़िम्मेदार है।
एक समय ऐसा भी था जब अमेरिका और रूस के बाद यूक्रेन के पास सबसे अधिक मात्रा में परमाणु हथियार हुआ करते थे। सोचने वाली बात यह है कि अगर आज भी यूक्रेन के पास वह परमाणु हथियार होते तो क्या रूस कभी युद्ध करने की हिम्मत करता?
संभवतः नहीं
खैर जो नहीं है, अब उसके बारे में बात करने का कोई लाभ नहीं, लेकिन आज आपको ये ज़रूर जानना चाहिए कि किन कारणों और परिस्थितियों में यूक्रेन ने अपना परमाणु हथियार समर्पित किया था।
दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका और सोवियत संघ (वर्तमान रूस) के बीच शीत युद्ध (Cold War) की शुरुआत हो गई। दोनों देश खुद को ताकतवर साबित करने के लिए अपना परमाणु जखीरा बढ़ाने की होड़ में लग गए। उस दौरान यूक्रेन सोवियत संघ का ही सदस्य हुआ करता था। शीत युद्ध के दौरान रूस ने यूक्रेन में काफी बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार तैनात कर रखे थे ताकि वह आसानी से अमेरिका व अन्य यूरोपिय देशों पर हमला कर सके। रिपोर्ट्स की माने तो यूक्रेन में तैनात परमाणु बम की संख्या 1800 से 2000 के बीच थी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद से सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति बेहद खराब चल रही थी। अंततः 1991 में सोवियत संघ टूट गया। इस दौरान यूक्रेन ने भी खुद को सोवियत संघ से अलग करने की घोषणा कर दी। आर्थिक स्थिति से परेशान यूक्रेन को अपना देश चलाने के लिए पश्चिमी देशों की सहायता चाहिए थी, इस सहयता के बदले यूक्रेन को अपने परमाणु हथियारों की कुर्बानी देनी पड़ी थी।
बुडापेस्ट मेमोरंडम के तहत यूक्रेन ने त्यागे अपने परमाणु हथियार।
दिसंबर, 1994 में हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में यूक्रेन, बेलारूस, कजाखस्तान, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका के नेताओं ने एक बैठक की थी। इस बैठक में इन सभी देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था। इस समझौते को बुडापेस्ट मेमोरंडम ऑन सिक्योरिटी अश्योरेंस नाम दिया गया था। इस समझौते के अनुसार यूक्रेन, बेलारूस और कजाकिस्तान को अपना परमाणु हथियार त्यागना था और इसके बदले में उन्हें उनकी अखंडता और संप्रभुता का आश्वासन दिया गया।
साल 1996 में यूक्रेन ने इस समझौते का पालन करते हुए अपने सारे हथियार रूस को सौंप दिए। यूक्रेन ने तो अपने समझौते का पालन बखूबी किया लेकिन रूस ने महज़ 18 साल बाद क्रीमिया को कब्ज़ा करके यह साबित कर दिया कि वह ऐसी संधियों का सिर्फ अपनी जरूरतों के अनुसार ही पालन करता है। उस समय भी अगर NATO यूक्रेन को परमाणु शक्ति बनने में मदद करता तो शायद आज यह युद्ध टाला जा सकता था।
नैतिकता नहीं, ताकत की कद्र होती है।
रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर के यह साबित कर दिया कि दुनिया ताकत से चलती है, नैतिकता से नहीं। एक दौर भारत में भी ऐसा आया था जब नैतिकता की दुहाई देकर हमें परमाणु परिक्षण करने से रोका जा रहा था। जब हम नहीं माने तो वह नैतिक पाठ वैश्विक दबाव में बदल गया। अमेरिका, जापान और अन्य कई देशों ने 1998 में पोखरण में हुए सफल परमाणु परिक्षण के बाद भारत के ऊपर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए थे, लेकिन हम झुके नहीं। यही कारण है कि आज भारत एक ताकतवर देश के रूप में देखा जाता है।
1984 परमाणु परिक्षण सफल होने के बाद भारत के उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने संसद में कहा था कि, ‘आप दोस्त बदल सकते है, पड़ोसी नहीं।’ यूक्रेन को भी अपने परमाणु हथियार त्यागने से पहले इस बात का ख्याल रखना चाहिए था कि वह अपने दोस्त (NATO) बदल सकता है, पडोसी (Russia) नहीं।