कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ में BJYM कार्यकर्ता प्रवीण नेट्टारू की हत्या के बाद से भाजपा की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। ऐसा नहीं है कि प्रवीण पहले भाजपा कार्यकर्ता थे, जिनकी मृत्यु हुई हो। भाजपा ने पहले भी बंगाल, केरल और कर्नाटक में बहुत से समर्थक और कार्यकर्ता को मरते देखा है। लेकिन परेशानी की बात यह है कि सिर्फ मरते हुए ‘देखा है’, उन हत्याओं को रोकने के लिए ‘समय रहते’ कोई ठोस कदम नहीं उठाया। यही कारण है कि कर्नाटक में भाजपा कार्यकर्ता रोश में पार्टी से इस्तीफा दे रहे हैं, और अपने लिए एक नई उम्मीद (अन्य हिंदुत्ववादी संगठन) की तलाश कर रहे हैं।
भाजपा कार्यकर्ता व समर्थक क्यों हैं निराश?
- प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी: नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री तो हैं ही, लेकिन साथ-ही-साथ वो भाजपा के वरिष्ठ और सबसे लोकप्रिय नेता भी हैं। किसी भी पार्टी के कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी उम्मीद ही यही होती है कि सुख-दुःख की घड़ी में उसका लीडर उसका साथ दे, लेकिन ऐसा देखने को नहीं मिल रहा। बंगाल चुनाव के बाद हुई हिंसा से लेकर कर्नाटक और केरल में संघ परिवार से जुड़े लोगों की हत्या पर मोदी जी की चुप्पी ने कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से तोड़ दिया है। बंगाल में CBI भले ही अब नकेल कस रही है लेकिन उस समय जब संघ परिवार के कार्यकर्ताओं को मोदी जी की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी, तब वह खुलकर सामने नहीं आए।
खैर, मोदी समर्थक ये जरूर कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी की गरिमा के कारण उन्होंने चुप्पी साधी हुई थी। अगर ऐसा है तो मोदी जी ने 29 अक्टूबर 2020 को जब कश्मीर में भाजपा के 3 कार्यकर्ता मरे थे, तब क्यों ट्विटर पर शोक व्यक्त किया? खैर आपकी जानकारी के लिए बता दें कि उन कार्यकर्ताओं के नाम थे- फ़िदा हुसैन, उमर राशिद और उमर हुसैन। हो सकता है नाम में कुछ अलग रहा हो।
- गलत मुद्दों को हवा देना: भाजपा कार्यकर्ताओं का ध्यान भटकाने के लिए लगातार उन मुद्दों को हवा दे रही है, जिनका कोई सर-पैर ही नहीं है। सोनिया गांधी द्वारा स्मृति ईरानी को गुस्से में ‘Don’t talk to me’ कहना, भाजपा के लिए एक कार्यकर्ता की मौत से ज्यादा महत्वपूर्ण विषय बन गया।
भाजपा का बड़े-से-बड़ा नेता भी इंटरव्यू देते समय एक बात अवश्य कहता हैं- ‘हम सब महज़ एक र्कार्यकर्ता हैं।’ स्मृति जी ने भी अपने कई इंटरव्यू में यह बात कही है। एक प्रश्न मन में यह उठता है कि एक कार्यकर्ता को डोंट टाॅक टू मी कहना, और दूसरे की मौत हो जाने में कौन सा मुद्दा ज्यादा बड़ा है? खैर भाजपा के बड़े नेताओं, माफ़ कीजियेगा कार्यकर्ताओं का संसद में प्रदर्शन देखकर ऐसा लगा कि ‘डोंट टाॅक टू मी’ ज्यादा बड़ा मुद्दा था।
- मुंह-ज़ुबानी कड़ी निंदा व एक्शन लेने में देरी: बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद हुई हत्या को देखकर ऐसा लग रहा था कि मानों ‘कड़ी निंदा’ शब्द की जनक भाजपा ही है। बंगाल चुनाव के बाद एक-एक करके भाजपा के कार्यकर्ता मर रहे थे, लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता सिर्फ कड़ी निंदा, कड़ी निंदा अल्ट्रा प्रो मैक्स, भर्त्सना, आदि करने में लगे हुए थे। प्रधानमंत्री मोदी ने तो अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने व मौतों पर शोक व्यक्त करने के लिए एक ट्वीट तक नहीं किया। हालांकि जेपी नड्डा और उस समय के गवर्नर जगदीप धनकड़ पीड़ित परिवारों से मिलने अवश्य गए थे, लेकिन क्या इतना काफी था?
17 मई 2021 को जब सीबीआई ने तृणमूल कांग्रेस के 4 नेताओं को अरेस्ट कर लिया था, तब ममता बनर्जी अपने कार्यकर्ताओं के साथ सीधा सीबीआई ऑफिस के बाहर धरना देने बैठ गई थी। क्या किसी बड़े भाजपा नेता ने बंगाल चुनाव के बाद हुई हिंसा के दौरान कुछ ऐसा किया? हालांकि एक भाजपा नेता ने ट्वीट कर के ये ज़रूर बताया था कि उनकी कार पर हमला हो गया है और वह समर्थकों के बीच नहीं आ सकते। फिलहाल इस वक्त वो नेता खुद TMC में चले गए हैं, और अब उनकी कार सुरक्षित है।
कांग्रेस ने अपने समय में सिर्फ सत्ता के लिए कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया था। ज़रा सोचिए कि अगर भाजपा की जगह कांग्रेस केंद्र में होती और उसके कार्यकर्ता व समर्थकों के ऊपर बंगाल चुनाव के बाद हमले हो रहे होते तो क्या होता? कांग्रेस राष्ट्रपति शासन लगाती कि नहीं? और अगर आपका जवाब हां है, तो भाजपा ने ऐसा क्यों नहीं किया?
- विचारधारा से समझौता: विचारधारा एक दिन में परिवर्तित होने वाली चीज नहीं है। यह समय और समझ के साथ लोगों के दिलों-दिमाग में जगह बनाती है। संघ परिवार हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर सत्ता में आया था, लेकिन अब ऐसा लग नहीं रहा है कि भाजपा का दूर-दूर तक हिंदुत्व से कभी कोई नाता रहा हो। भाजपा सत्ता के लालच में अन्य पार्टी व विचारधारा के लोगों को संगठन से जोड़ती जा रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो भाजपा दूसरी कांग्रेस बन गई है।
जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए विचारधारा ही सब कुछ होती है। जब चुनाव के ठीक पहले व ठीक बाद सत्ता की लालच में एक राजनैतिक दल, दूसरे दलों के नेताओं को संगठन से जोड़ता है तो सबसे ज्यादा कष्ट कार्यकर्ताओं को ही होता है। इस प्रकार की गतिविधियां संगठन को वैचारिक रूप से कमज़ोर तो बनाती ही हैं, साथ-ही-साथ समर्थकों और कार्यकर्ताओं को भी निराश करती हैं। यह निराशा कई बार गुस्से में तब्दील हो जाती है और फिर वही होता है जो इस वक्त कर्नाटक भाजपा का हो रहा है- पतन।
Lok Sabha 2024: समर्थकों में आक्रोश का क्या होगा असर?
हाल ही में इंडिया टीवी ने ‘देश की आवाज़’ नामक एक ओपिनियन पोल प्रसारित किया है। उस ओपिनियन पोल में यह बताया गया है कि अगर देश में 543 लोकसभा सीटों पर अभी चुनाव कराए जाते हैं तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए को 362 सीट और यूपीए को महज़ 97 सीटें मिलेंगी। हालांकि ताज़ा माहौल के हिसाब से यह ओपिनियन पोल काफी हद तक सच भी लग रहा है।
लेकिन एक बहुत बड़ा सच यह भी है कि बड़ी संख्या में भाजपा समर्थक 2024 में वोट देने नहीं निकलेंगे। भाजपा द्वारा किए जा रहे वैचारिक समझौते के कारण कार्यकर्ताओं में काफी निराशा है। कहने को तो RSS और VHP की विचारधारा एक ही है, लेकिन कई जगहों पर लोग RSS को छोड़कर VHP ज्वाइन कर रहे हैं। इसके प्रमुख कारण हैं हाल ही में दिए गए बेतुके बयान। जैसे- Same DNA, 50 वर्षों के लिए देवी-देवताओं को भूल जाएं युवा, आदि।
आने वाले 2 दशकों में, अगर भाजपा को कोई पार्टी हरा सकती है, तो वो खुद भाजपा ही है। और भाजपा वैचारिक समझौते व क्षणिक राजनैतिक लाभ के कारण धीरे-धीरे हार की ओर अग्रसर है।